Thursday, 29 March 2012

उनतीस साल गुजर गए !

विश्वास नहीं होता.. क्या क्या किया ! जब बातें याद करती हूँ तो सोचती हूँ, वह मैं थी ? पुरानी छोटी छोटी कहानियों के जैसे तार छिड गए हैं. खट्टे, मीठे और कुछ कडवे भी. ज़िन्दगी की पहेलियाँ कभी खुद बनती रही, कभी मैं बनाती रही. दिमाग का ढक्कन जैसे खुलता गया. एक बात तो है, पाँचो इन्द्रियों से जो हम महसूस करते हैं , उससे बढ़कर जो है वही इस पहेली का हल है. एक और बात है, पहेली के पहलु समझने के लिए, सतर्क रहकर और सोच बुझ से चलते रहे. हताश हो कर रुक जाना और कमियों से परेशान होना, व्यर्थ है. 

तो खाओ पियो और खुश रहो !

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